Thursday, February 19, 2009

mujhko tumse baandhe

लैला के लिए, और थोडी सी तारिक के लिए भी , या शायद बहुत सारी, नहीं, सारी कि सारी नहीं ....

मुझको तुमसे बांधे ये जो इक ज़ंजीर है
धरती से अम्बर को जाते सपनो की तक़रीर है
लिखी गई मालिक से तो
ख़ुद खींची हांथों पर मैंने ऐसी भी कोई लकीर है
मुझको तुमसे बांधे ये जो इक ज़ंजीर है
धरती से अम्बर को जाते सपनो की तक़रीर है

Thursday, February 12, 2009

hawa

यूँ चुपके से मेरा दामन छु कर
सहेली सी कोई काँधे पे झुक कर
मेरे कानों में कुछ कह गई हवा
मैंने छूना तो चाहा
कुछ तेज़ बह गई हवा

एक गीली सी खुशबू बन कर
याद बहुत पुरानी बन कर
उन आंखों की धड़कन बन कर
मेरे दिल की तड़पन बन कर
उतरी यूँ साँसों में भर कर
मुझको छु कर अपना सा कर गई हवा
मुझ में बस कर
मेरी सी बन गई हवा

क्यों
परदेस में
जानी पहचानी सी लगती हो?
क्यों मेरी पढ़ी हुई कहानी सी लगती हो?
मेरे देस से आयी हो क्या?
अम्मा का संदेस लाई हो क्या?
मेरे सवालों पर हंस दी हवा
मैंने छूना जो चाहा
और तेज़ चल दी हवा

Wednesday, February 4, 2009

लकड़ी में घुन सा लगता hai

लकड़ी में घुन सा लगता है
इक सपना मन में पलता है
जीवन दूर बहुत है उस से
पर देखो वो कब से
दिन रात यूँ मुझको छलता है
इक सपना मन में पलता है


फीके संकल्पों कि क्यों तीखी आशा
विद्रोही मन को भी रोके
ये क्यों बढकर के मर्यादा
जब कोई मुझको गरज़ नहीं दुनिया के सच्चे झूठों से
फिर क्यों इनकी बातों से मन धुक धुक कर के जलता है
लकड़ी में घुन सा लगता है


है तो सारा अम्बर मेरा
तारे मेरे सूरज मेरा
माँगूं तो अब भी शायद
हो धरती और सागर मेरा
पर वो मुझसे रूठ गया जो
पर वो मेरा छूट गया जो
चन्दा मुझको खलता है
इक सपना मन में पलता है

मन का ही ये दीपक मेरे
बुझता है खुल कर ही क्यों जलता है
लकड़ी में घुन सा लगता है

Sunday, January 25, 2009

जिनको मैंने छोड़ दिया
ख़ुद इन हाथों से तोड़ दिया
वो सपने मेरा साथ न छोडें
कुछ रातें दिन का हाथ न छोडें

Saturday, December 27, 2008

Main nahin murali ki tano me

मैं नहीं मुरली की तानो में
वो स्वर नहीं मेरे कानो में

मैं राधा की आंखों का जलता अंगार नहीं
मैं रुक्मिणी के पावों का भी श्रृंगार नहीं

मैं मीरा के होंठों से महका कोई गान नहीं
मैं गोकुल की गलियों का भी तो पाषाण नहीं

मैं कोई नहीं
मैं कुछ भी नहीं

वो देखे मुझको सही
पर मुझको भी तो दिखते श्याम नहीं

क्यों कोई नहीं
क्यों कुछ भी नहीं

क्यों राधा सा मिला आधार नहीं
क्यों रुक्मिणी सा मिरा सिंगार नहीं

क्यों गीत मेरे मीरा से कम हैं
क्यों पत्थरों में ज़ियादा दम है

क्यों इस तप को लगता फल नहीं
अब आज नहीं तो चल क्यों कल नहीं

Thursday, December 25, 2008

ye bhi kyon lagta uska apradh nahi

ये भी क्यों लगता उसका अपराध नहीं
फिर मिलने की की जो उसने साध नहीं
जमना के पानी में फिर
उट्ठा वो ऊफान नहीं
ये दुखः जरना आसान नहीं
अब कृष्ण कहीं और राध कहीं
और मिलने की
की ही उसने साध नहीं

Saturday, December 20, 2008

vo ik khawab

वो इक ख्वाब
बेहद हसीन था
वो सच हो जायेगा
हमको यकीन था
उस के ख्याल में
रातें नहीं
दिन गवाएं थे हमने
बेशुमार लम्हे
उसके तस्सव्वुर में बिताये थे हमने

यूँ वक्त जाया नहीं करते
कुछ संजीदा लम्हों का मशवरा था
पर
कहाँ सुनता था किसी की
की दिल था

हर हकीकत से ज़ियादा अज़ीज़ था
वो इक ख्वाब
दिल के बेहद करीब था

मगर हैरान हूँ
की वो जब सच हुआ
जों होना चाहिए था
मुझको वो गम हुआ

सीने में
धड़कता ही रहा अपलक
उसके जाने से
ये मर क्यों गया

मेरी बेरुखी से शायाद रूठ ही गया
अब सोचती हूँ तो मुझको भूल भी गया